- क्षुल्लक श्री जिनेन्द्र वर्णी जी (अध्यात्म लेखमाला)
एक दृष्टि से हम देखते हैं, तो समझ में आता है कि मैं मात्र ज्ञान हूं। ये ही मुख्य नहीं है कि ’मैं जानता हूं’ मगर यह भी
विचारणीय है कि मैं क्या जानता हूं।
अगर मेरे सामने कोई वस्तु आई तो मैं उसे अनेक प्रकार से जान सकता हूं। अगर मैने उसे इस प्रकार जाना कि इससे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है, तो वह भी एक प्रकार का जानना ही है, और अगर मैने उसे इस प्रकार जाना कि यह तो मेरे लिये बहुत हितकारी है, तो वह भी एक प्रकार का जानना ही है। दोनो अवस्थाओं में मेरा
काम जानना है।
दोनो ही जानने वाले काम है, मगर दोनो में अन्तर है। पहले वाले में जब हम जानते हैं, तो जानना पवित्र है – उसमें विकल्प नहीं है, मगर दूसरे में राग है। दूसरी अवस्था में, जैसे ही मैने जाना कि यह हितकारी है, तत्काल लोभ कषाय की उदय, उदीरणा से मैं रागमयी हो जाता हूं। अगर उसे मैं अपने लिये बहुत हितकारी जानता हूं, तो राग भी प्रबल होता है, और कम हितकारी जानता हूं, तो राग भी निर्बल होता है। इस दृष्टि से पर वस्तु को अच्छा-बुरा जानना ही वास्तविकता में ज्ञान का(मेरा) असंयम हैं।
और हम एक और तरह से विचार करें
कि मेरा जानना किस प्रकार का है? अगर मैं एक दम निःसंशय होकर जान रहा हूं – यही मेरी श्रद्धा है – वह सच्ची है, या झूठी - यह अलग बात है।
तो ज्ञान ही असंयम है और ज्ञान ही श्रद्धा है। इसी को शास्त्रीय भाषा में मिथ्याचारित्र, मिथ्यादर्शन कहते हैं।
अब अगर किसी पिता ने अपने बेटे को देखा, और यह सोचा मैने इसे पाला पोसा- इतना बङा किया। इसमें आत्मा को अपने
को पिता जाना और बेटे के पालने पोसने का कर्ता जाना। यही जानना कर्ता बुद्धि है।
दूसरी तरफ़, ज्ञानी जानता है कि वो मात्र ज्ञान है, और अज्ञानी अपने को पिता जानता
है, और बेटे का एकान्त से कर्ता जानता है। इस कर्ता पने से ही राग उत्पन्न होता
है। इसी प्रकार से भोक्ता पने पर भी समझना चाहिये।
जब ज्ञान पवित्र होता है, और अपने को निःसंशय से ज्ञान ही जानता है – वही
सच्ची श्रद्धा है। और अपने को ज्ञान ही देखता है, तो राग भी उत्पन्न नहीं होता-
वही सच्चा चारित्र है।
यहां ज्ञान ही श्रधा है, और ज्ञान ही चारित्र। इसी को शास्त्रिय भाषा में सम्यग्दर्शन, सम्यग्चारित्र कहते हैं।
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