Thursday, May 16, 2024

सुख के लिये क्या क्या करता है।

संसारी जीव: 



  • सोचता है विषयो से सुख मिलेगा, तो उसके लिये धन कमाता है। विषयो को भोगता है। मगर मरण के साथ सब अलग हो जाता है। और पाप का बन्ध ओर हो जाता है।
  • सोचता है सत्ता से सुख मिलेगा, तो सत्ता प्राप्त करने को पुरूषार्थ करता है। मगर मरण के साथ वो भी चली जाती है। और पाप का बन्ध और हो जाता है।
  • सोचता है अच्छे रूप, बलिष्ट शरीर मेरे लिये अच्छा रहेगा। उसके लिये प्रयास करता है।
  • सोचता है कि मेरा समाज अच्छा रहेगा तो बढिया होगा। समाज सेवा करता है।
  • सोचता कि मेरा यश होगा तो सुख मिलेगा। तो उसके लिये पुरूषार्थ करता है|
  • इसी प्रकार परिवार, धन आदि में जहां जहां उसे लगता है कि मेरे लिये हितकारी है, वहां वहां पुरूषार्थ करता है।


मगर ये सब क्षणिक हैं। और इनके प्रति पुरूषार्थ पाप कर्मो का ही संचय कराती है।


Monday, January 9, 2023

मैं किसी को छूता ही नहीं

वास्तविक जगत और जो जगत हमें दिखाई देता है उसमें अन्तर है। जो हमें दिखता है, वो इन्द्रिय से दिखता है और इन्द्रियों की अपनी सीमितता है। और जो वास्तविक जगत है, वो अलग है।

इंद्रिय जगत में ’स्पर्श’: जहां एक हाथ दूसरे के माथे को स्पर्श करता है। और हाथ की गर्मी दूसरे के सर पर आती है, और उसे सुकून महसूस होता है। जहां पर एक चन्दन लगी अंगुली को दूसरे के सर पर लगाते हैं, और उसके माथे पर तिलक बन जाता है। इस दुनिया में अधिकांश एक जगह पर एक वस्तु ही रहती है। दूसरी आती है, तो पहली वाली को हटना होता है। यहां की भाषा भी ऐसी ही होती है - ’मैंने उसे सुकून दिया, उसने मुझे मेरी जगह से हटा दिया, या तो वो रहेगा या मैं, मैंने उसे पाला, यह वस्तु दूसरी वस्तु से छू गयी- टकरा गयी’

वास्तविक दुनिया में स्पर्श: मगर वास्तविक दुनिया अलग है। जहां एक जगह पर अनन्त द्रव्य एक साथ रहते हैं, और अपनी सत्ता को कायम रखते हैं। उनमें कुछ द्रव्यों में बीच में निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध बनता भी हैं, और कुछ में नहीं भी। और जिनमें बनता है, इसमें मात्र निमित-नैमित्तिक सम्बन्ध ही बनता है - कोई गुण या पर्याय एक से दूसरे में प्रवेश नहीं करती - जिस प्रकार की पुद्गल की दुनिया में दिखाई देता था। यहां स्पर्श या टकराने का कोई मतलब नहीं। यहां मात्र निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध बनता है। स्पर्श तो ’पुद्गल की दुनिया’ में ही होता है या जिसे  इन्द्रिय जगत कहते है।

इस वास्तविक दुनिया की दृष्टि में मैं किसी को छूता नहीं।

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इन्द्रिय जगत में कर्ता: अग्नि ने पानी को गर्म कर दिया। इसमें ऐसा लगता है जैसे अग्नि की गर्मी पानी में प्रवेश कर गयी हो। पानी के गर्म होने में पानी की उपादान शक्ति भी है, मगर वो हमेशा ही है इसलिये उसकी मुख्यता समझ में नहीं आती। अग्नि एक ऐसा निमित्त है जो मिला तो काम हो गया, इसलिये वो ही प्रधान कारण दिखाई देता है। क्योंकि जल की उपदान शक्ति हमेशा ही है गर्म होने की, इसलिये वो हमें प्रधान कारण नहीं दिखाई देता।

Sunday, July 31, 2022

कितना सच कितना झूठ: (नय विवक्षा)

 

 

सच

झूठ

नय

ये मेरी माता है

जिस प्रकार के कर्म किये उसके अनुसार कोख मिली। जो जीवन में सुख दुख मां के निमित्त से मिले, वैसे ही कर्म मैने किये थे। इस प्रकार के सम्बन्ध को, जो उन विशेष कर्मो के फ़लीभूत होने में निमित्त हो, उस कहते हैं मां।

उस सम्बंध में कर्मो की समझ ना होने से, उस सम्बन्ध को अनित्य/अशरण रूप ना जानने से जो उसके प्रति एकान्त रूप (मात्र नित्यरूप और शरण रूप अनुभव करने) से मेरे पने का भाव हुआ। वह झूठ है। और यह दृष्टी मोह और राग मिश्रित है।

उपचरितअसद्भूत व्यवहार

ये मेरा बहन है

जिस प्रकार के मैने और बहन ने कर्म किये उसके अनुसार दोनो को एक ही कोख मिली। जो जीवन में सुख दुख बहन के निमित्त से मिले, वैसे ही कर्म मैने किये थे। इस प्रकार के सम्बन्ध को, जो उन विशेष कर्मो के फ़लीभूत होने में निमित्त हो, उस कहते हैं बहन।

उस सम्बंध में कर्मो की समझ ना होने से, उस सम्बन्ध को अनित्य/अशरण रूप ना जानने से जो उसके प्रति एकान्त रूप (मात्र नित्यरूप और शरण रूप अनुभव करने) से मेरे पने का भाव हुआ। वह झूठ है। और यह दृष्टी मोह और राग मिश्रित है।

उपचरितअसद्भूत व्यवहार

घर/धन आदि

जिस प्रकार के मैने कर्म किये उसके अनुसार धन/घर आदि की प्राप्ति हुई। जो जीवन में सुख दुख उनके निमित्त से मिले, वैसे ही कर्म मैने किये थे।

उस सम्बंध में कर्मो की समझ ना होने से, उस सम्बन्ध को अनित्य/अशरण रूप ना जानने से जो उसके प्रति एकान्त रूप (मात्र नित्यरूप और शरण रूप अनुभव करने) से मेरे पने का भाव हुआ। वह झूठ है। और यह दृष्टी मोह और राग मिश्रित है।

उपचरितअसद्भूत व्यवहार

वेदना

जिस प्रकार के मैने कर्म किये उसके अनुसार शारीरिक वेदना (दुखद, दुखद) की प्राप्ति हुई।

उस सम्बंध में कर्मो की समझ ना होने से, उस सम्बन्ध को अनित्य/अशरण रूप ना जानने से जो उसके प्रति एकान्त रूप (मात्र नित्यरूप और शरण रूप अनुभव करने) से मेरे पने का भाव हुआ। वह झूठ है। और यह दृष्टी मोह और राग मिश्रित है।

अशुद्ध निश्चय नय

राग-द्वेष

मेरे ज्ञान, श्रधान, चारित्र और कर्म के उदय से राग-द्वेष हुवे

इनको अपना ही स्वभाव मान लेना

अशुद्धन निश्चय नय

Tuesday, June 28, 2022

विषय, क्रोध, मान - सुभाषित रत्न सन्दोह जी से

 विषय

  • विषय शत्रु है। पापको संचित कराके अनेक जन्म-जन्मान्तरोंमें दुःख दिया करता है ।

  • जिन विषयों से चक्रवर्ती भी तृप्त नहीं प्राप्त होता उनसे भला साधारण मनुष्य कैसे हो सकता हैं 

  • तृष्णा रूपी ज्वालाओं को शान्ति इन्द्रिय विषयों से नहीं हो सकती है, बल्कि विषय उनको और अधिक बढ़ा देती हैं।

  • अपने कुटुम्बी जनों के लिये विषयो की प्राप्ति के लिये हिंसा करके तीव्र पाप करता हैं, मगर अकेला ही उन पाप के फ़लो को सहता है।

  • विषय अनित्य हैं।

क्रोध

  • क्रोधी का कोई आदर नहीं करता।

  • क्रोध संचित किये हुए पुण्यको क्षण भर में नष्ट कर देता है।

  • क्रोध धैर्य को नष्ट करता है, विवेक को नष्ट करता है, निन्द वचन बुलवाता है। 

  • क्रोध से मित्रता, दया, उपकारी जीवो के प्रति कृतज्ञता नष्ट हो जाती है।

  • ’मैने पूर्व में इसको दुख दिया है’ ऐसे कर्म सिद्धान्त को समझके क्रोध को शान्त करना चाहिये।

  • ’अच्छा हुआ! इससे मेरे कर्मो की निर्जरा हो रही है’।

  • यह बेचारा अज्ञानी प्राणी स्वयं ही पापका संचय कर रहा है। ऐसा विचार करके उसे क्षमा करें।

  • अगर कोई गाली दे, तो सोचो ’मारा तो नहीं’। अगर मार दे, तो सोचो ’धर्म तो नष्ट नहीं किया’ - ऐसे अपने क्रोध को शान्त करें।

  • अध्यात्म:

    • वस्तु स्वातंत्र्य का चिन्तन करके क्रोध शान्त करे

    • सबको ज्ञान स्वभावी आत्मा देखें

    • क्रोध को विभाव समझके उससे भेद विज्ञान करें

  • चिन्तन वाक्य:

    • मेरे से किसी के प्रति कटु वचन नहीं निकलें।

    • जीवन में एक साधना बनायें कि किसी भी स्थिति में मेरे को क्रोश उत्पन्न ना हो


मान

  • जो यह समझता है कि 'मैं ही सबकुछ है, मुझसे अधिक दूसरा कोई नहीं है।” वह अनेक भवों में नीच कुलको प्राप्त होता है।

  • अभिमान से विवेक नष्ट होता है, नम्रता समाप्त होती है, कीर्ति मलिन होती है।

  • अभिमान वश माननीय जनों का भी सन्मान नहीं करता है।

  • मान धर्मको नष्ट करता है, पापको संचित करता है, दुर्भाग्य को लाता है

  • अभिमान से माता, पिता, मित्र आदि सब प्रतिकूल हो जाते हैं। कोई प्रेम नहीं करता।

  • अभिमान से व्यक्ति नष्ट होता है, जबकि नम्रता से समृद्धिको प्राप्त होता है।

  • जहां मान है, वहां आत्म बोध नहीं। क्योंकि जिसको अपना समझके मैने मान किया है, वह मेरा आत्म स्वरूप नहीं।

  • मान में जीव अपने को दूसरो से ऊंचा समझता है। और पर सापेक्ष चिन्तन होने से आत्म चिन्तन अवरूद्ध हो जाता है। 

  • घर में, समाज में झगङे का मुख्य कारण मान कषाय ही है।

  • धर्म के प्रसंग में कोई उच्चता दिखाने का भाव रखता है तो वह है - अनन्तानुबन्धी मान।

  • चिन्तन वाक्य:

    • मुझे दुनिया जाने तो क्या, ना जाने तो क्या?

    • आत्महित चाहने वाले व्यक्ति को तो यह मान कषाय दूर ही कर देनी चाहिये।

    • नाम की इच्छा एक बहुत ही बुरी समस्या है।


मननीय बिन्दु

  • पर का आश्रय करके कोई शान्ति चाहे तो शान्ति मिलना असम्भव है।

  • अपना लक्ष्य शुद्ध हो तो सारे काम सही बनेंगे।


Wednesday, May 18, 2022

शरीर का प्रयोग

 शरीर संसार बढ़ाने के लिये:

- विषयों की पूर्ती के लिये (पांच इन्द्रिय)

- कषाय की पूर्ती के लिये (क्रोध, मान, लोभ आदि की पूर्ति के लिये)

- पांच पाप के लिये


शरीर संसार घटाने के लिये

- तप - निर्जरा के लिये

- समिति, वैयावृत्ति, स्वाध्याय, स्तुति आदि के लिये

Thursday, April 28, 2022

प्रशंसा

"जिस पर्याय की तुम प्रशंसा कर रहे हो, उसे तो त्यागने को मैं उद्यत हुआ" - ऐसा विचार करते हुवे मोक्षमार्गी को प्रशंसा में सुख अनुभूत नहीं होता। और ना ही प्रशंसा की इच्छा होती है।

Thursday, April 21, 2022

स्वार्थ के साथी

 कार्यार्थ भजते लोके न कश्चित् कस्यचित्प्रियः।

वत्सः क्षीरक्षयं दृष्ट्वा स्वयं त्यजति मातरम्।।सम्यक्त्व कौमुदी।।

 

श्लोकार्थ-

संसार में कार्य के लिए ही कोई किसी की सेवा करता है परमार्थ से कोई किसी का प्रिय नही है। दूध का क्षय देखकर बछढ़ा स्वयं ही माता को छोड़ देता है।।

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स्पष्टीकरण-

प्रत्येक जीव परमार्थ से अपनी मान्यता, अपने राग और अपने द्वेष से ही राग करता है। इसकी पूर्ति में चेतन अचेतन जो भी परद्रव्य सहयोगी स्वरूप बन जाए तो वह भी इनसे राग करता हुआ भासित होता है।

और जब इसकी पूर्ति रुक जाती है तब राग करना अपने आप रुक जाता है। इसी को कहते है "सब स्वार्थ के है भीरि"।

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सावधानी-

यहां आचार्य देव ने यह कथन शोक और भय में जाने के लिए नही किया हुआ है वरन शोक और भय से बचाने के लिए विपरीत मान्यता जन्य अतिरागादि से दूर रहने के लिए किया हुआ है। 

कारण कि जब रिश्तों का सम्यक् स्वरूप समझ में आता है तब रिश्तो के प्रति अति अपेक्षा और अति उपेक्षा से रहित अनासक्त भाव से जीने का लाभ प्राप्त होता है। जिससे हमारा जीवन दुर्ध्यान रहित धर्मध्यान सहित होकर मंगलमय बन जाया करता है। 

 

✍शैलेश जैन सोनागिर……


बारसाणुवेक्खा गाथा 21:  मादापिदरसहोदरपुत्तकलत्तादिबंधुसंदोहो। जीवस्स ण संबंधो णियकज्जवसेण वट्टंति ॥21॥

= माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, आदि बंधुजनों का समूह अपने कार्यके वश संबंध रखता है, परंतु यथार्थ में जीवका इनसे कोई संबंध नहीं है। अर्थात् ये सब जीवसे जुदे हैं।

सुख के लिये क्या क्या करता है।

संसारी जीव:  सोचता है विषयो से सुख मिलेगा, तो उसके लिये धन कमाता है। विषयो को भोगता है। मगर मरण के साथ सब अलग हो जाता है। और पाप का बन्ध ओर ...