जाते जी देखा कि एक श्रावक जी की सल्लेखना चल रही है। वें इन्दौर के हैं और उनका नाम पटौदी जी पता पङा। जिस दिन हम पहुंचे तो एक कमरे में वें लेटे हुए थे, और बाहर board लगा था कि ’केवल ब्रहम्चारी भैया ही कमरे में प्रवेश करें’। अन्दर एक ब्रहम्चारी भैया वैयवृत्ति कर रहे थे। अगले दिन बता पङा कि रात्रि में सल्लेखना पूर्ण हो गयी। शाम को मुनि श्री संभवसागर महाराज जी के पास गये तो उन्होने बतलाया कि किस प्रकार से सल्लेखना हुई।
- उन्होने सल्लेखना के अतिचारो के बारे में समझाया, और बतलाया कि जैसे अतिचार शास्त्रो में बतलाये गये हैं वैसे परिणामो के आने की सम्भावना रहती है और सच्ची सम्बोधन से श्रावक उसको सल्लेखना में जीत भी लेता है। जैसे - एक अतिचार है कि श्रावक को मरण की इच्छा होये कि सल्लेखना जल्दी से समाप्त हो जाये।
- उन्होने बताया कि श्रावक को निर्जल उपवास के साथ एक समय पानी लेने वाले उपवास का भी अभ्यास होना चाहिये, वह अभ्यास सल्लेखना में काफ़ी उपयोगी रहता है।
- गुरू के प्रति समर्पण और गुरू की आज्ञा का पूरा पालन बहुत जरूरी है।
- सल्लेखना के लिये प्रतिमा होनी जरूरी है।
- पटौदी जी आचार्य श्री जी से रोज आशिर्वाद लेने के बाद ही जल ग्रहण करते थे। मगर जल वाले उपवास का अभ्यास ना होने से वो ज्यादा जल नहीं ले पा रहे थी। महाराज जी ने कहा कि जल अच्छी मात्रा में जाये तो वो शरीर के लिये अच्छा रहता है।
कुछ बहनो के चोके में हम जुङ गये। एक महाराज जी का हमारे चौके में आहार हुआ। महाराज जी का नमक, चीनी और हरी का त्याग था। उन्होने रोटी, मूंग की दाल ली और सूखे चावल लिये। मुनियों के लिये तो रस परित्याग तप बहुत साधारण है, मगर मेरे लिये तो यह अद्भुत था। पंचम काल में यह दृश्य मिलने का सौभाग्य हुआ तो ऐसी लगा कि मुझे अपने पुण्य से ज्यादा ही मिल गया। उनके दर्शन करके लगा कि कहां वें तपस्या और त्याग की मूर्ति, और कहां मैं विषय-कषाय में लिप्त तुच्छ प्राणी।
आचार्य श्री जी के दर्शन करने का सौभाग्य मिला। उन्हे अपने बारे में बतलाया तो उन्होने प्रसंगवश भारत के इतिहास और संस्कृति को जानने के लिये मुझसे कहा। इसके लिये उन्होने दो पुस्तक अध्ययन करने का निर्देश दिया। आचार्य श्री जी के चरण स्पर्श करने और उनसे चर्चा करने का सौभाग्य मिला तो लगा जीवन धन्य हो गया।
आचार्य श्री जी के द्वारा ४ दिक्षायें देखने का अवसर मिला। जिस दिन दिक्षायें हुई, उस दिन सुबह हम आचार्य श्री जी जब आहार चर्या के लिये निकले, तब उनके पीछे पीछे चल पङे। ऋषि भैया जी ने आचार्य श्री जी को पङगाया और फ़िर लगभग तीन किलोमीटर दूर उनके घर तक चलते रहे। वहां आचार्य श्री के आहार शुरू होने पर हम वापस आये। वापस आने पर पता पङा कि ऋषि भैया ने आहार के बाद आचार्य श्री जी से दिक्षा के लिए बहुत निवेदन किया, और आचार्य श्री ने ऋषि भैया को दीक्षा देकर धन्य कर दिया। साथ में ३ और भैया जी की दीक्षायें हुई। ४ दीक्षार्थी में से ३ दीक्षार्थी तो बीस से तीस वर्ष उम्र के ही लग रहे थे। वस्त्र उतारते वक्त परिग्रह त्याग का जो आनन्द दीक्षार्थीयों के मुखमण्डल में दिखाई दिया, वैसा आनन्द शायद इस दुनिया में कहीं ओर ना दिखाई दे सके। ४ दीक्षार्थियों का मुनि बनकर जीवन धन्य हो गया, और हमारा उनकी दिक्षायें देखकर। अब दिक्षायें देख ली, तो ये भावना हुई कि कब मेरे ऊपर आचार्य परमेष्ठी की करूणा हो और मेरा उपादान बलवान हो, और मेरे को भी रत्नत्रय की प्राप्ति हो। दिक्षायें देखना दुर्लभ है। ना जाने कौन सा ऐसा पुण्य किया था कि मेरे को ये अवसर मिला।
विदिशा से खुरई गये और वहां आचार्य श्री जी के संघ के तीन महाराज जी: वीरसागर महाराज जी, विशाल सागर महाराज जी और धवल सागर महाराज जी: के दर्शन हुए। वहां पता पङा कि वीर सागर महाराज जी के १०२ बुखार था और उन्होने उसी में केश लौंच किया और उस दिन उपवास भी रखा। ऐसी त्याग तपस्या का जहां वातावरण हो, वह प्राप्त होने का सौभाग्य मिलना दुर्लभ है। रत्नत्रय को धारण करना तो अत्यन्त दुर्लभ है ही, मगर चलते फ़िरते रत्नत्रय धारियों के दर्शन करना भी महा दुर्लभ।
खुरई में एक घर ने हमें भोजन पर आमंत्रित किया। उनके चौके पर हम पहले पङगाहन के लिए खङे हुए, मगर आहार दान का सौभाग्य ना होने पर भोजन किया। परिवार की महिला की दो बहने आर्यिका हैं, और दो पुत्री हैं जिनमें से छोटी पुत्री के आर्यिका बनने की भावना है। ये भी आहार तैयार करके, सबको भोजन कराके फ़िर मन्दिर जाकर पूजन करके दिन के २ बजे ही भोजन करती हैं। इस प्रकार के परिवारों से ही बुन्देलखण्ड की धरती पवित्र है।
खुरई से सागर गये और मुनि श्री क्षमासागर महाराज जी के दर्शन किये। उनका बिगङता स्वास्थ्य देखकर मन दहल गया। लगा कि कर्म भी कितने निर्दयी है कि एक महाव्रती को भी इन्होने नहीं छोङा। वें बोल नहीं पा रहे थे और ना ही slate इत्यादि का प्रयोग कर रहे थे। देखने में कमजोर लग रहे थे।
बुन्देलखण्ड और इस तरफ़ के लोगो में कई विशेष बात देखने को मिली। यहां के लोग कष्टसहिष्णु हैं। प्रसन्नतापूर्वक त्याग, तपस्या करते हैं, और व्रतियों के लिए समर्पित हैं। अन्य क्षेत्रो पर लोग आजकल सुख साधनो की ओर ज्यादा आकर्षित होकर त्याग, तपस्या से दूर होते जा रहे हैं, और अपनी इस प्रवृत्ति के कारण मुनियों की सेवा से भी वंचित हो जाते हैं। जो सुख सुविधा का आदि होगा, वह व्रतियों के लिये या धर्म पाने के लिए कष्ट नहीं सह पायेगा। और बिना कष्ट के उपलब्धियां सीमित ही रहती हैं।
हस्तिनापुर अतिशय क्षेत्र के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वहां आचार्य भारत भूषण महाराज जी के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उन्होने अपने ग्रहस्थ जीवन के ७ प्रतिमा वाली अवस्था का वर्णन किया कि किस प्रकार वो घर में रहकर और दिल्ली के सदर बाजार में नौकरी करते हुए भी ७ प्रतिमा का पालन करते थे। उनके बात को सुनकर बहुत प्रेरणा मिली। बाद में महाराज जी से समयसार जी के कुछ विषयों पर चर्चा हुई, और महाराज जी से बहुत कुछ सीखने को मिला।
4 comments:
जरुर बहुत पुन्य किए होगे आपने तब ही ये सुअवसर मिला वरना हम जैसे भारत में रहेकर भी नहीं जा पाए
धन्य है जिनधर्म और उसका धन्य है उस धर्म का विधिवत पालन करनेवाले .....
अनुपम
VEry good trip review
I hope every year you get such opportunity
aapney to maharaja shree ke darshanon se,chaar chaar dikshaon aur sallekhna dekar punyarjn kar liya bhut bhut Mubarak ho mmunishree kshmasagar jee maharaja ki tabiyet ab kaise hai.yhee prarthna karte hai ki unhey swasthy laabh sheghrtasgheeghr ho
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