"उसे ऐसा करना चाहिये" - यह अपेक्षा है। दूसरा जीव कोई कार्य करता है, और हम अपनी आसक्ति उसके कार्य से जोङ लेते हैं। सोचते हैं, कि वो मेरे अनुसार करे, या जो मेरे को ठीक लगता है ऐसा करे।
प्रश्न यह है कि वो ऐसा क्यों करेगा जैसा मैं चाहूंगा? उसे जैसा सही लगेगा वैसा सो करेगा, तो मैं उसके कार्य में आसक्ति क्यों रखूं।
शरीर में बिमारी होने पर जीव पुरूषार्थ करता है, और अगर स्वास्थ्य ठीक नहीं होता तो दुखी होता है। परिणाम पर इतनी आसक्ति क्यों, वो तो भाग्य और पुरूषार्थ पर निर्धारित है।
Thursday, May 15, 2014
डांट
डांट को कई लोग अच्छा नहीं मानते। कुछ तो लोग ऐसा सोचते हैं कि यह मात्र प्रताङना है जिसमें दूसरे को मात्र दुखी किया जा सकता है। डांटने की जगह हमें दूसरे को मात्र प्रेम से समझाना चाहिये।
वास्तव में देखा जाये तो समझाना और डांट दोनो ही जीवन में जरूरी हैं। दूसरे को पहले तो समझाया ही जाता है, मगर समझने की बावजूद भी जब वह पुराने संस्कारो की वजह से गलत कार्य नहीं छोङ पाता है, तो डांट अति उपयोगी सिद्ध होती है।
डांट तभी कारगार होती है जब डांट पङने वाले व्यक्ति को डांट सुनकर पछतावा हो, अगर पछतावे की जगह उसे डांटने वाले से द्वेष हो जाये तो वह व्यक्ति उस प्रकार की डांट का पात्र नहीं है।
छोटे बच्चे को सही रस्ते पर समझाना ही अच्छा है, मगर जब समझाने के बावजूद भी गलत कार्य करे तो डांट कार्यकर होती है। जैसे मानलो बच्चे का चरित्र खराब होना शुरू हो जाये, तो उसे प्रथम समझाना ही जरूरी है। अगर वो सुधर जाये तो ठीक, अगर नहीं तो फ़िर से समझाना चाहिये और यह नक्की करना चाहिये कि उसे सही बात समझ में आ गयी। समझ में आने के बावजूद भी नहीं माने तो डांट ही उपयोगी।
अध्यात्मिक क्षेत्र में एक उदाहरण लें: एक व्यक्ति को सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया, मगर चारित्रमोह वश चारित्र धारण नहीं कर पा रहा। ऐसी अवस्था में गुरू के द्वारा डांट उसके जगे हुए पुरूषार्थ को जगा सकती है और उस पुरूषार्थ से वह व्यक्ति चारित्रमोह को पछाङकर चारित्र ग्रहण कर सकता है।
दूसरा उदाहरण लें: चारित्र धारण किये हुये जीव जब चारित्र से स्खलित हो जाये तो गुरू के द्वारा डांट बहुत कार्यकारी सिद्ध होती है।
ऐसे जीव धन्य हैं जिन्हे सच्चे गुरू से समझदारी की बाते और डांट दोनो प्राप्त होती हैं।
वास्तव में देखा जाये तो समझाना और डांट दोनो ही जीवन में जरूरी हैं। दूसरे को पहले तो समझाया ही जाता है, मगर समझने की बावजूद भी जब वह पुराने संस्कारो की वजह से गलत कार्य नहीं छोङ पाता है, तो डांट अति उपयोगी सिद्ध होती है।
डांट तभी कारगार होती है जब डांट पङने वाले व्यक्ति को डांट सुनकर पछतावा हो, अगर पछतावे की जगह उसे डांटने वाले से द्वेष हो जाये तो वह व्यक्ति उस प्रकार की डांट का पात्र नहीं है।
छोटे बच्चे को सही रस्ते पर समझाना ही अच्छा है, मगर जब समझाने के बावजूद भी गलत कार्य करे तो डांट कार्यकर होती है। जैसे मानलो बच्चे का चरित्र खराब होना शुरू हो जाये, तो उसे प्रथम समझाना ही जरूरी है। अगर वो सुधर जाये तो ठीक, अगर नहीं तो फ़िर से समझाना चाहिये और यह नक्की करना चाहिये कि उसे सही बात समझ में आ गयी। समझ में आने के बावजूद भी नहीं माने तो डांट ही उपयोगी।
अध्यात्मिक क्षेत्र में एक उदाहरण लें: एक व्यक्ति को सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया, मगर चारित्रमोह वश चारित्र धारण नहीं कर पा रहा। ऐसी अवस्था में गुरू के द्वारा डांट उसके जगे हुए पुरूषार्थ को जगा सकती है और उस पुरूषार्थ से वह व्यक्ति चारित्रमोह को पछाङकर चारित्र ग्रहण कर सकता है।
दूसरा उदाहरण लें: चारित्र धारण किये हुये जीव जब चारित्र से स्खलित हो जाये तो गुरू के द्वारा डांट बहुत कार्यकारी सिद्ध होती है।
ऐसे जीव धन्य हैं जिन्हे सच्चे गुरू से समझदारी की बाते और डांट दोनो प्राप्त होती हैं।
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