रत्नकरण्ड श्रावकाचार Question/Answer:
अध्याय १: सम्यकदर्शन अधिकार
प्रश्न: महावीर भगवान कौन सी लक्ष्मी से संयुक्त हैं?
उत्तर: महावीर स्वामी दो लक्ष्मी से संयुक्त हैं - अंतरंग, बहिरंग। अंतरंग तो अनन्त चतुष्टय रूप (अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य) है। बहिरंग लक्ष्मी समोशरण रूप है।
प्रश्न: धर्म का लक्षण बताओ।
उत्तर: जो संसार दुःख से छुङाकर स्वर्ग-मोक्ष के सुख में रख दे वो धर्म है।
प्रश्न: सम्यकदर्शन का लक्षण बतायें?
उत्तर: देव, शास्त्र, गुरू का श्रद्धान
प्रश्न: सम्यकदर्शन थोङा ओर विस्तार में बतलाइये।
उत्तर: देव शास्त्र गुरू की ३ मूढ़ताओं रहित, आठ अंगो सहित, आठ मदो से रहित श्रद्धा करना।
प्रश्न: देव का स्वरूप क्या है?
उत्तर: वीतरागी, सर्वज्ञ, हितोपदेशी
प्रश्न: देव के कौन से १८ दोष नहीं होते?
उत्तर:
1 2 3 4 5 6 7
जन्म जरा तॄषा क्षुधा, विस्मय आरत खेद,
8 9 10 11 12 13 14 15
रोग शोक मद मोह भय, निद्रा चिन्ता स्वेद।
16 17 18
राग द्वेष अरु मरण युत, ये अष्टादश दोष ,
नही होत अरिहन्त के,सो छवि लायक मोक्ष॥
प्रश्न: उपदेश देते वक्त क्या देव, राग पूर्वक उपदेश देते है?
उत्तर: नहीं
प्रश्न: शास्त्र के बारे में कौन सी ७ बाते ग्रन्थ में बतलाई गयीं हैं?
उत्तर:
१. सर्वज्ञ देव के द्वारा कहा गया है
२.इन्द्रादि देवो के द्वारा अनुलंघ्घनीय
३.अन्य वादियों के द्वारा अखण्डनीय
४.प्रत्यक्ष तथा अनुमान के विरोध से रहित
५.तत्वो का उपदेश करने वाला है
६.सबका हितकारी है
७.मिथ्यामार्ग का निराकरण करने वाला है
प्रश्न: गुरू का लक्षण बताइये।
उत्तर:
· विषयो की आशा से रहित।
· आरम्भ से रहित। (खेती आदि व्यापार सम्बन्धी कार्य आरम्भ कहलाते हैं।)
· परिग्रह से रहित।
· ज्ञान, ध्यान, तप मे लीन।
प्रश्न: सम्यकदर्शन के ८ अंगो का नाम बताइये?
उत्तर:
1. निःशकित,
2. निष्कांक्षित,
3. निर्विचिकित्सा,
4. अमूढदृष्टि,
5. उपगूहन,
6. स्थितीकरण,
7. वात्सल्य,
8. प्रभावना
प्रश्न: सम्यकदर्शन के ८ अंगो की व्याख्या रत्नकरण्ड जी से बतलाइये?
उत्तर:
निःशकित:
· आप्त, आगम और तपस्वी रूप तत्व अथवा जीवादि तत्व यही है ऐसा ही है अन्य नहीं है इस तरह समीचीन मोक्षमार्ग के विषय में लोहे के पानी के समान निश्चल श्रद्धा निःशंकित गुण है।
निष्कांक्षित:
· कर्मो के आधीन, अन्त से सहित, दुःखों से मिश्रित अथवा बाधित, और पाप के कारण विषय सम्बन्धी सुख में जो अरूचिपूर्वक श्रद्धा है वह निःकांक्षितत्व नाम का गुण माना गया है।
निर्विचिकित्सा:
· स्वभाव से पवित्र किन्तु रत्नत्रय से पवित्र शरीर में ग्लानि रहित गुणों से प्रेम करना निर्विचिकित्सागुण माना गया है।
अमूढदृष्टि:
· जो दृष्टि, दुःखों के मार्गस्वरूप मिथ्यादर्शनादि कुमार्ग में और कुमार्ग में स्थित जीव में भी मानसिक सम्मति से रहित, शारीरिक सम्पर्क से रहित, और वाचनिक रशंसा से रहित है वह अमूढदृष्टि नामक गुण कहा जाता है। (प्रभाचन्द्राचार्य जी की टीका से: कुमार्ग में स्थित जीव के विषय में मन से ऐसी सम्मति नहीं करना कि ’यह कल्याण का मार्ग है’।)
उपगूहन:
· स्वभाव से निर्मल रत्नत्रयरूप मार्ग की अज्ञानी तथा असमर्थ मनुष्यों के आश्रय से होने वाली निन्दा को जो प्रमार्जित करते हैं- दूर करते हैं उनके उस प्रमार्जन को उपगूहन गुण कहते हैं।
स्थितीकरण:
· धर्मस्नेही जनों के द्वारा सम्यग्दर्शन से अथवा चारित्र से भी विचलित होते हुए पुरूषों का फ़िर से पहले की तरह स्थित करना स्थितीकरण गुण कहा जाता है।
वात्सल्य:
· अपने सहधर्मी बन्धों के समूह में रहने वाले लोगों के प्रति अच्छे भावों से सहित और माया से रहित उनकी योग्यता के अनुसार आदर सत्कार आदि करना वात्सल्यगुण कहा जाता है।
प्रभावना:
· अज्ञानरूपी अन्धकार के विस्तार को दूर कर अपनी शक्ति के अनुसार जिनशासन के माहात्म्य को प्रकट करना प्रभावनागुण है।
प्रश्न: विषयसुख के बारे में कौन सी ४ बाते निष्कांक्षित गुण में बताई गयीं हैं?
उत्तर:
१. कर्मों के आधीन है
२. अन्त सहित है
३. दुःखो से मिश्रित है
४. पाप का बीज है
प्रश्न: सम्यकदर्शन के ८ अंगो की किसकी कथायें प्रसिद्ध हैं?
उत्तर:
निःशकित: अंजन चोर
निष्कांक्षित: अनंतमति
निर्विचिकित्सा: उद्दायन राजा
अमूढदृष्टि: रेवती रानी
उपगूहन: जिनेन्द्रभक्त सेठ
स्थितीकरण: वारिषेण
वात्सल्य: विष्णुकुमार
प्रभावना: वज्रकुमार मुनि
प्रश्न: ३ मूढ़ताओं का स्वरूप बतलाइये।
उत्तर:
लोकमूढ़ता: धर्म समझकर नदी आदि में स्नान करना
देवमूढ़ता: लौकिक इच्छा से रागी-द्वेषी देवताओं की आराधना करना
गुरूमूढ़ता: परिग्रह, आरम्भ, हिंसा से सहित कुगुरू को सच्चा गुरू मानना
प्रश्न: आठ मदो का स्वरूप बतलाइये?
उत्तर: ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धी, तप, शरीर
प्रश्न: मद को जीतने का क्या उपाय बताया गया है?
उत्तर: श्लोक २७ के अनुसार- "यदि पाप को रोकने वाला रत्नत्रय धर्म है तो अन्य सम्पत्ति से क्या प्रयोजन है यदि पाप का आस्रव है तो सम्पत्ति से क्या प्रयोजन है।"
प्रश्न: क्या सम्यग्दृष्टि कुगुरू, कुदेव, कुशास्त्र की विनय करता है?
उत्तर: ना तो विनय करता है, मस्तक झुकाकर प्रणाम नहीं करता और प्रशंसा नहीं करता
प्रश्न: सम्यग्दर्शन की और विशेषतायें बतलाइये?
उत्तर:
१. सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग का खेवटिया है
२. सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग का बीज है
३. सम्यग्दृष्टि गृहस्थ मिथ्यात्व से सहित मुनि से श्रेष्ठ है
४. तीन काल, तीन लोक में सम्यग्दर्शन के समान कल्याणरूप और मिथ्यात्व के समान अकल्याणरूप वस्तु नहीं
५. सम्यग्दृष्टि जीव नारकी, तिर्यंच, स्त्री, नीच कुल, विकलांग, अल्प आयु, दरिद्रता में नहीं जाता (जिसने सम्यग्दर्शन के बाद आयु बन्ध किया हो)
६. सम्यग्दर्शन के बाद पुरूष बनें तो उत्साह, प्रताप, विद्या, पराक्रम, यश, वृध्दि, विजय, वैभव, उच्चकुल से सहित होते हैं
७. सम्यग्दर्शन के बाद देव बनें तो अणिमा आदि आठ गुणो से संयुक्त होते हैं
८. सम्यग्दृष्टि ही चक्रवर्ती हो सकते हैं
९. सम्यग्दृष्टि ही तीर्थंकर हो सकते हैं
९. सम्यग्दृष्टि ही मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं
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अध्याय 2: सम्यग्ज्ञान अधिकार
प्रश्न: सम्यग्ज्ञान किसे कहते हैं?
उत्तर:
१. जो पदार्थ को न्यूनता रहित, अधिकता रहित जाने
२. जो पदार्थ को विपरीतता रहित जाने
३. जो पदार्थ को सन्देह रहित जाने
प्रश्न: शास्त्रो(द्रव्यश्रुत) के चार भेद बतलाओ।
उत्तर: प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग
· प्रथमानुयोग:
o चरित्र: जिसमें एक पुरूष से सम्बन्धित कथा होती है।
o पुराण: जिसमें त्रेसठशलाका पुरूषो से सम्बन्ध रखने वाली कथा होती है।
o प्रथमानुयोग सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय की प्राप्ति, समाधि और शुक्लध्यान की प्राप्ति का खजाना है। इसको सुनने से पुण्य बन्ध होता है।
· करणानुयोग:
o लोक, अलोक का वर्णन होता है। युगो के परिवर्तन, चारो गतियों को बताता है।
· चरणानुयोग:
o गृहस्थ, मुनियों के चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के कारणों का विशद वर्णन है।
· द्रव्यानुयोग:
o छह द्रव्यो, सात तत्त्व, नौ पदार्थ, पंचास्तिकाय का विस्तार से वर्णन करता है
प्रश्न: त्रेसठ शलकापुरूष और १६९ महापुरूष कौन होते हैं।
उत्तर:
· त्रेसठ शलाकापुरूष = २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ नारायण, ९ बलभद्र, ९ प्रतिनारायण
· १६९ महापुरूष = २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ नारायण, ९ बलभद्र, ९ प्रतिनारायण, ४८ (२४ तीर्थंकर के माता, पिता), ९ नारद, ११ रूद्र, १४ कुलकर, २४ कामदेव
प्रश्न: चार भेद के कुछ शास्त्रो के नाम बतलाओ।
उत्तर:
· प्रथमानुयोग: आदिपुराण, उत्तर पुराण, हरिवंश पुराण, महा पुराण, श्रेणिक चारित्र
· करणानुयोग: त्रिलोकसार, तिल्लोयपण्णत्ति
· चरणानुयोग: रत्नकरण्डश्रावकाचार, मूलाचार, सागर धर्मामृत, अंगार धर्मामृत
· द्रव्यानुयोग: तत्वार्थ सूत्र, पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार, इष्टोपदेश, परमात्मप्रकाश
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अध्याय ३: सम्यग्चारित्र अधिकार
प्रश्न: सम्यग्चारित्र की प्राप्ति कब होती है?
उत्तर: दर्शनमोह-मिथ्यात्वरूप अन्धकार का यथासम्भव उपशम, क्षय अथवा क्षयोपक्षम होने पर जिसे दर्शनसम्यक्त्व की प्राप्ति हुई है और सम्यक्त्व की प्राप्ति होने से जिसने सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर लिया है ऐसा भव्यपुरूष राग-द्वेष को दूर करने के लिये चारित्र को प्राप्त होता है। (आचार्य प्रभाचन्द्राचार्य जी की टीका से उद्धृत।)
प्रश्न: चारित्र किसे कहते हैं?
उत्तर: हिंसा, झूठ, चोरी, परिग्रह, कुशील पापो की निर्वृत्ति को चारित्र कहते हैं
प्रश्न: चारित्र कितने प्रकार का होता है?
उत्तर: दो -
१) सकल चारित्र
२) विकल चारित्र
प्रश्न: श्रावक के १२ व्रतो के नाम बतलाइये?
उत्तर:
१. अणुव्रत:
१. आहिंसाणुव्रत
२. सत्याणुव्रत
३. अचौर्याणुव्रत
४. ब्रह्मचर्याणुव्रत
५. अपरिग्रहाणुव्रत
२. गुणव्रत:
1. दिगव्रत,
2. अनर्थदंडव्रत
3. भोगोपभोगपरिमाणव्रत
३. शिक्षाव्रत:
१. देशावकाशिक(देशव्रत)
२. सामायिक:
३. प्रोषोधोपवास,
४. वैयावृत्य(अतिथिसंविभाग)
प्रश्न: श्रावक के १२ व्रतो का स्वरूप बतलाइये?
उत्तर: गृहस्थो को होता है और यह अणुव्रत रूप होता है। यह निम्न प्रकार का होता है:
१. अणुव्रत:
१. आहिंसाणुव्रत = स्थूल हिंसा से निर्वृत्त होना = पापादि के भय से संकल्प पूर्वक त्रस जीवो की हिंसा से निर्वृत्त होना
(अथवा - मन-वचन-काय के योग से संकल्पपूर्वक त्रस जीवों का बध न खुद करना, न कराना, ना अनुमोदन करना)
२. सत्याणुव्रत = स्थूल असत्य से निर्वृत्त होना = पापादि के भय से पर पीङाकारन स्थूल वचन ना बोलना
३. अचौर्याणुव्रत = स्थूल चोरी से निर्वृत्त होना = पापादि के भय दूसरे के द्वारा छोङी हुयी स्थूल अदत्तवस्तु के ग्रहण का त्याग
४. ब्रह्मचर्याणुव्रत = स्थूल कुशील से निर्वृत्त होना = पापादि के भय अपनी स्त्री में ही सन्तोष रखना
५. अपरिग्रहाणुव्रत = स्थूल परिग्रह से निर्वृत्त होना = पापादि के भय धन धान्य खेत आदि का अपनी इच्छा अनुसार परिमाण करना
२. गुणव्रत: आठ मूलगुणो की वृद्धि के कारण गुणव्रत बतलाये हैं। आठ मूलगुणो = मद्य, मांस, मधु त्याग + ५ अणुव्रत
1. दिगव्रत: मरण पर्यन्त सूक्ष्म पापों की निवृत्ति के लिये दिशाओं के समूह को मर्यादा सहित करके मैं इससे बाहर नहीं जाऊंगा ऐसा संकल्प करना दिग्व्रत होता है।
2. अनर्थदंडव्रत : दिग्व्रत की सीमा के भीतर प्रयोजन रहित पाप सहित योगों से निवृत्त होने को अनर्थदंडव्रत कहते हैं।
3. भोगोपभोगपरिमाणव्रत: परिग्रह परिमाणव्रत में परिग्रह की जो सीमा निर्धारित की थी उसमें भी इन्द्रियविषयों का जो परिसंख्यान-नियम किया जाता है वह भोगोपभोग परिमाणव्रत है।
३. शिक्षाव्रत: मुनिव्रत की शिक्षा के लिये जो व्रत होते हैं उन्हे शिक्षाव्रत कहते हैं।
१. देशावकाशिक(देशव्रत): श्रावको का प्रतिदिन समय की मर्यादा से द्वारा आने जाने की सीमा निर्धारण करना।
२. सामायिक: सब जगह मर्यादा के भीतर और बाहर भी सम्पूर्ण रूप से पंच पापो का किसी निश्चित समय तक त्याग करना सामायिक शिक्षाव्रत है।
३. प्रोषोधोपवास: चतुर्दशी और अष्टमी के दिन सर्वदा के लिये व्रत विधान की इच्छा से चार प्रकार के आहारों का त्याग करना प्रोषधोपवास जानना चाहिये।
४. वैयावृत्य(अतिथिसंविभाग): तप के धनी रत्नत्रय धारी ऐस मुनी के लिये धर्म के निमित्त प्रतिदान और मन्त्रतन्त्रादि प्रति उपकार की भावना की अपेक्षा से रहित आहारादि का दान देना वैयावृत्य कहलाता है। (तत्वार्थ सूत्र: स्वयं अपना और दूसरे के उपकार के लिए अपनी वस्तु का त्याग करना दान है।) सम्यग्दर्शनादि गुणों की प्रीति से देशव्रत और सकलव्रत के धारक संयमीजनों की आई हुई नाना प्रकार की आपत्ति को दूर करना पैरो का, उपलक्षण से हस्तादिक अंगो का दाबना और इसके सिवाय अन्य भी जितना उपकार है वह सब वैयावृत्य कहा जाता है।
प्रश्न: ४ प्रकार की हिंसा कौन सी हैं?
उत्तर: आरम्भी, उद्योगी, विरोधी, संकल्पी
प्रश्न: अहिंसा व्रत की पाँच भावनायें बताइए? ( तत्वार्थ सूत्र के अनुसार)
उत्तर:
· वचनगुप्ति
· मनोगुप्ति
· ईर्यासमिति
· आदाननिक्षेपण समिति
· आलोकितपान भोजन
प्रश्न: सत्य व्रत की पाँच भावनायें बताइए? ( तत्वार्थ सूत्र के अनुसार)
उत्तर:
· क्रोध का त्याग
· लोभ का त्याग
· भीरूत्व का त्याग
· हास्य का त्याग
· आगमानुकूल भाषण
प्रश्न: अचौर्य व्रत की पाँच भावनायें बताइए? ( तत्वार्थ सूत्र के अनुसार)
उत्तर:
· शून्यागारवास: पर्वत की गुफ़ाओं तथा वृक्ष की कोटरों आदिअ प्राकृतिक शून्य स्थानों में निवास करना।
· विमोचितावास: राजा आदिअ के द्वार छुङाये हुए उजङे गृहों में निवास करना।
· परोपरोधाकरण: अपने स्थान पर दूसरे के ठहर जाने पर रूकावट नहीं करना।
· भैक्ष्यशुद्धि: चरणानुयोग की पद्धति से भिक्षा शुद्धि रखना।
· सधर्माविसंवाद: सहधर्मी जनों के साथ उपकरणादिअ के प्रसंग को लेकर विसंवाद नहीं करना।
प्रश्न: ब्रहमचर्य व्रत की पाँच भावनायें बताइए? ( तत्वार्थ सूत्र के अनुसार)
उत्तर:
· स्त्रियों में राग बढ़ाने वाली कथाओं के सुनने का त्याग करना
· उनके मनोहर अंगो के देखने का त्याग करना
· पहले भोगे हुए भोगों के स्मरण का त्याग करना
· गरिष्ठ एवं कामोत्तेजक पदार्थों के सेवन का त्याग करना
· अपने शरीर की सजावट का त्याग करना।
प्रश्न: अपरिग्रह व्रत की भावनायें बताइए? ( तत्वार्थ सूत्र के अनुसार)
उत्तर: मनोज्ञ और अमनोज्ञ इन्द्रियों के विषय में क्रम से राग और द्वेष का त्याग करना।
स्पर्श गुण: कठोर, कोमल, भारी, हल्का, चिकना, रूखा, शीत, उष्ण
रस गुण: चर्परा, कटुक, कसैला, खट्टा, मीठा
गंध गुण: सुगंध, दुर्गंध
वर्ण गुण: सफ़ेद, काला, नीला, लाल, हरा
रस गुण: चर्परा, कटुक, कसैला, खट्टा, मीठा
गंध गुण: सुगंध, दुर्गंध
वर्ण गुण: सफ़ेद, काला, नीला, लाल, हरा
प्रश्न: तत्वार्थ सूत्र में और क्या भावनाए बताई गईं हैं?
उत्तर:
· हिंसादिक पाँच दोषो में इस लोक और परलोक में विनाशकारी और निन्दनीय हैं।
· हिंसादिक दुःख ही है ऐसी भावना करनी चाहिए।
· प्राणिमात्र में मैत्री, गुणाधिकों में प्रमोद, क्लिश्यमानों में करूणा व्रुत्ति और अविनयों में माध्यस्थ भावना करनी चाहिये।
· संवेग और वैराग्य के लिए जगत के स्वभाव और शरीर के स्वभाव की भावना करनी चाहिये।
प्रश्न: अहिंसा के अतिचार बतलाइएैं?
उत्तर:
· छेदना: दुर्भावना से नाक, कानादि अवयवों को छेदना
· बांधना: इच्छित स्थान पर जाने से रोकने के लिए रस्सी आदि से बांध देना।
· पीङा देना: डंडे कोङे आदि से पीटना
· अधिक भार लादना: उचित भार से अधिक भार लादना
· आहार को रोकना: अन्न पानादिरूप आहार का निषेध करना अथवा थोङा देना।
प्रश्न: सत्य के अतिचार बतलाइएैं?
उत्तर:
· मिथ्योपदेश: अभ्युदय और मोक्ष की प्रयोजनभूत क्रियाओं में दूसरे को अन्यथा प्रवृत्ति कराना।
· रहोभ्याख्या: स्त्री-पुरूष की एकान्त में की हुई विशिष्ट क्रिया को प्रकट करना रहोभ्याख्यान है।
· पैशुन्य: अंग विकार तथा भौंहों का चलाना आदि के द्वारा दूसरे के अभिप्राय को जानकर ईर्ष्यावश उसे प्रकट करना पौशून्य है।
· कूटलेख लिखना: धोखा देने के अभिप्राय से कपटपूर्ण लेख लिखना।
· न्यासापाहारिता: धरोहर को हङप करने के वचन कहना: धरोहर रखने वाला व्यक्ति यदि अपनी वस्तु की संख्या को भूलकर अल्पसंख्या में ही वस्तु को मांग रहा है तो कह देना हां, इतनी ही तुम्हारी वस्तु है, ले लो।
प्रश्न: अचौर्य के अतिचार बतलाइएैं?
उत्तर:
· चौरप्रयोग: चोर को प्रेरणा देना, दिलाना या अनुमोदना करना।
· चौरार्थदान: चोर के द्वारा चुराई गयी वस्तु को ग्रहण करना।
· विलोप: उचित न्याय को छोङकर अन्य प्रकार के पदार्थ का ग्रहण करना।
· सदृशसन्मिश्र: नकली को असली में मिलाकर बेचना। जैसे तेल को घी में।
· हीनाधिक विनिमान: माप करते हुये ही हीन अघिक करना।
प्रश्न: अपरिग्रह के अतिचार बतलाइएैं?
उत्तर:
· अतिवाहन: लोभ की तीव्रता को कम करने के लिए परिग्रह परिमाण कर लेने पर भी लोभ के आवेश से अधिक वहन करता है। उससे अधिक दूर उन्हे चलाना अतिवाहन कहलाता है।
· अतिसंग्रह: यह धान्यादि आगे जाकल बहुत लाभ देगा, इस लोभ के वश से जो अधिक संग्रह करता है उसका यह कार्य अतिसंग्रह नामक अतिचार है।
· अतिविस्मय: संगृहीत वस्तु को वर्तमान भाव से बेच देने पर किसी का मूल भी वसूल नहीं हुआ और दूसरा कुछ ठहर कर बेचता है तो उसके अधिक लाभ होता है, यह देखकर लोभ के आवेश से जो अत्यन्त खेद एवं अतिविस्मय करता है। यह अतिविस्मय नामक अतिचार है।
· अतिलोभ: विशिष्ट अर्थलाभ होने पर भी और भी अधिक लाभ की आकांक्षा करता है वह अतिलोभ नाम का अतिचार है।
· अतिभारवाहन: लोभ के आवेश से अधिक भार लादना अतिभारारोपण अतिचार है।
प्रश्न: ब्रहमचर्य के अतिचार बतलाइएैं?
उत्तर:
· अन्यविवाहाकरण: अपनी या आश्रित बन्धुजनो की सन्तान का विवाह प्रमुख बनकर करना।
· अनंगक्रीङा: कामसेवन के निश्चित अंगो को छोङकर अन्य अंगो से क्रीङा करना।
· विटत्व: शरीर से कुचेष्टा करना और मुख से अश्लीली भद्दे शब्दो का प्रयोग करना।
· विपुलतृषा: कामसेवन की तीव्र अभिलाषा रखना।
· इत्वरिकागमन: परपुरूषरत व्याभिचारिणी स्त्री को इस्वरिका कहते हैं। ऐसी स्त्रियों के यहां आना – जाना उनके साथ उठना-बैठना तथा व्यापारिक सम्पर्क बढाना आदि इत्वरिकागमन है।
प्रश्न: गुणव्रत का प्रयोजन बतलाइये।
उत्तर: आठ मूलगुणो की वृद्धि के लिये गुणव्रत बतलाये हैं। आठ मूलगुण = मद्य, मांस, मधु त्याग + ५ अणुव्रत
प्रश्न: दिग्व्रत का प्रयोजन बतलाइये।
उत्तर: दिग्व्रत का प्रयोजन सूक्ष्म पापों की निवृत्ति करना है। मर्यादा के भीतर स्थूल पापों से निवृत्ति रहती है परन्तु मर्यादा के बाहर यातायात सर्वथा बन्द हो जाने से वहां सूक्ष्म पापो की भी निर्वृत्ति हो जाती है। मर्यादा के बाहर अणुव्रत महाव्रत को प्राप्त हो जाते हैं।
प्रश्न: दिग्व्रत में मर्यादा कैसे करते हैं।
उत्तर: प्रसिद्ध समुंद्र, नदी, अटवी, पर्वत, देश और योजन को मर्यादा रूप से लिया जाता है।
प्रश्न: दिग्व्रत के अतिचार बतलाइएैं?
उत्तर:
· ऊपर की दिशा में अज्ञान या प्रमाद से सीमा का उल्लंघन करना
· नीची की दिशा में अज्ञान या प्रमाद से सीमा का उल्लंघन करना
· तीर्यक दिशा में अज्ञान या प्रमाद से सीमा का उल्लंघन करना
· क्षेत्र को बढ़ा लेना
· सीमाओं को भूल जाना
प्रश्न: अनर्थदण्डव्रत शब्द का अर्थ बतलाइये।
उत्तर: अनर्थदंडव्रत = अन(नहीं) + अर्थ(प्रयोजन) + दण्ड(मन वचन काय की प्रवृत्ति) + व्रत (विरत हो जाना)
प्रश्न: अनर्थदण्डव्रत में दण्ड शब्द का अर्थ बतलाइये।
उत्तर: मन, वचन, काय के अशुभ व्यापार को दण्ड कहते हैं, क्योंकि ये दण्डो के समान दूसरो को पीङा देने वाले होते हैं।
प्रश्न: अनर्थदण्डव्रत के पाँच भेद बतलाइये।
उत्तर: पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति, प्रमादचर्या
प्रश्न: पापोपदेश नाम के अनर्थदण्ड के पाँच भेद बतलाइये।
उत्तर: जो उपदेश पाप को उत्पन्न करने में कारण हो उसे पापोपदेश कहते हैं।
· तिर्यग्क्लेश: तिर्यंचो को वश में करने की प्रक्रिया तिर्यग्क्लेश है। जैसे हाथी को वश में करना।
· वाणिज्य: लेन-देन आदि का व्यापार करना हिंसा है।
· आरम्भ: खेती आदि का कार्य आरम्भ कहलाता है।
· हिंसा: प्राणियों का वध करना हिंसा है।
· प्रलम्भन: दूसरो को ठगने आदि की कला प्रलम्भन है।
प्रश्न: हिंसादान नाम के अनर्थदण्ड का अर्थ बतलाइये।
उत्तर: हिंसा के उपकरण दूसरो को देना हिंसादान है।
प्रश्न: अपध्यान नाम के अनर्थदण्ड का अर्थ बतलाइये।
उत्तर: द्वेष के कारण किसी के वध, बन्धन और छेद आदि का तथा राग के कारण परस्त्री आदि का चिन्तन करने को अपध्यान कहते हैं।
प्रश्न: दुःश्रुति नाम के अनर्थदण्ड का अर्थ बतलाइये।
उत्तर: आरम्भ, परिग्रह, साहस, मिथ्यात्व, द्वेष, राग, अहंकार और काम के द्वारा चित्त को कलुषित करने वाले शास्त्रो का सुनना दुःश्रुति नाम का अनर्थदण्ड है।
प्रश्न: प्रमादचर्या का अर्थ बतलाइये।
उत्तर: बिना प्रयोजन के पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु का आरम्भ करना, वनस्पति का छेदना, स्वयं घूमना और दूसरो को घुमाना भी, इस सबको प्रमादचर्या नाम का अनर्थदण्ड कहते हैं।
प्रश्न: अनर्थदण्डव्रत के अतिचार बतलाइएैं?
उत्तर:
· राग की तीव्रता से हास्य-परिहास में भद्दे वचन बोलना।
· शरीर की कुचेष्टा करना
· बकवास करना
· भोगोपभोग की सामग्री का अधिक संग्रह करना
· बिना प्रयोजन के ही किसी कार्य का अधिक आरम्भ करना।
प्रश्न: भोगोपभोगपरिमाण के अतिचार बतलाइएैं?
उत्तर:
· अनुपेक्षा: इन्द्रिय विषय विष की उपेक्षा नहीं करना, उनके प्रति आदर बनाये रखना।
· अनुस्मृति: विषय अनुभव से वेदना का प्रतिकार हो जाने पर भी सौन्दर्य जनित सुख का साधन होने से विषयों क बार-बार स्मरण करना।
· अतिलौल्य: विषयों का प्रतिकार हो जाने पर भी बार-बार उसके अनुभव की आकांक्षा रखना।
· अतितृषा: आगामी भोगो की प्राप्ति की अत्यधिक गृद्धता रखना।
· अतिअनुभव: नियतकाल में भी जब भोगोपभोग का अनुभव करता है तब अत्यन्त आसक्ति से करता है वेदना के प्रतिकार की भावना से नहीं।
प्रश्न: यम और नीयम का अर्थ बतलाइये।
उत्तर:
- नियम = १-२ दिन, १-२ मास इत्यादि समय के लिये किया गया त्याग नियम कहलाता है। जैसे: भोजन, सवारी, शयन, स्नान, पवित्र अंगविलेपन, पुष्प, पान, वस्त्र, आभूषण, कामसेवन, संगीत और गीत के विषय में आज एक दिन, एक रात अथवा एक पक्ष, एक मास, एक ऋतु, ६ माह इस प्रकार समय के विभागपूर्वक त्याग करना नियम होता है।
- यम = मरणपर्यन्त के लिये किया गया त्याग यम कहलाता है
प्रश्न: देशावकाशिक में मर्यादा कैसे करते हैं।
उत्तर: घर, छावनी, गांव और खेत, नदी, वन तथा योजनों को मर्यादा रूप से लिया जाता है। एक वर्ष एक ऋतु, छह मास, एक माह, चार माह, एक पक्ष, एक नक्षत्र की काल ही मर्यादा कही गयी है।
प्रश्न: देशावकाशिक के अतिचार बतलाइएैं?
उत्तर:
· तुम यह काम करो’ इस प्रकार मर्यादा से बाहर भेजना।
· मर्यादा के बाहर कार्य करने वालों के प्रति खांसी आदि शब्द करना।
· मर्यादा के बाहर रहने वाले व्यक्ति से प्रयोजनवश आज्ञा देना कि ’तुम अमुक वस्तु लाओ’।
· मर्यादा से बाहर काम करने वालो को अपना शरीर दिखाना।
· उन्ही लोगो को लक्ष्य करके पत्थर आदि फ़ेंकना।
प्रश्न: सामायिक का काल कैसे निर्धारण करते हैं?
उत्तर: केश, मुट्ठी और वस्त्र के बन्ध के काल को, और पाली बांधने के काल को अथवा खङे होने के काल को और बैठने के काल को सामायिक का समय जानते हैं।
प्रश्न: सामायिक किस जगह करनी चाहिये?
उत्तर: स्त्री, पशु तथा नपुंसको से रहित प्रदेश में चित्त में चंचलता उत्पन्न करने वाले कारणों से रहित स्थान में वनों में मकानों में अथवा मन्दिरों में भी बढ़ाने योग्य है।
प्रश्न: सामायिक शब्द का अर्थ बताइये?
उत्तर: सामायिक शब्द सम और आय शब्दो के मेल से बना है। ’सम’ अर्थात राग-द्वेष से विमुक्त होकर जो ’आय’ अर्थात ज्ञानादिक का लाभ होता है जो कि प्रशम सुखरूप है, उसे समाय कहते हैं।
प्रश्न: सामायिक करते हुये गृहस्थ की तुलना मुनि से किस प्रकार की है?
उत्तर: सामायिक करते हुये गृहस्थ समस्त परिग्रह से रहित होता है, इसलिये वह उन मुनि के समान होता है जिन पर किसी ने वस्त्र लपेट दिया हो।
प्रश्न: सामायिक करते हुये गृहस्थ को क्या ठण्ड, सांप के काटने को सहन करना चाहिये, या सामायिक छोङ कर विपदा को दूर करना चाहिये?
उत्तर: समता से सहन करना चाहिये।
प्रश्न: सामायिक करते हुये गृहस्थ को क्या ध्यान करना चाहिये?
उत्तर: मैं शरण रहित अशुभ अनित्य दुःख स्वरूप और अनात्मस्वरूप संसार में निवास करता हूं और मोक्ष उससे विपरीत वाला है।
प्रश्न: सामायिक के अतिचार बतलाइएैं?
उत्तर:
· वचनदुष्प्रणिधान: सामायिक में पाठ या मन्त्र का ऐसा उच्चारण करना कि कुछ भी अर्थबोध न हो सके, अशुद्ध उच्चारण करना, वचन की चपलता होना।
· कायदुष्प्रणिधान: शरीर को हिलाना, डुलाना, इधर-उधर देखना, डांस-मच्छर को भगाना, आसन बदलना।
· मनदुष्प्रणिधान: सामायिक करते समय क्रोध, लोभ, द्रोह, अभिमान और ईर्ष्या आदिअ का होनी तथा कार्यों मे आसक्ति होने से मन चंचल होना।
· अनादर: नियत समय पर न करना या जिसी-किसी तरह से करना।
· अस्मरण: ’सामायिक मुझे करना चाहिये या नहीं’ या ’मैने सामायिक की है या नहीं’ इस प्रकार प्रबल प्रमाद के कारण स्मरण न रहना। मन्त्र या सामायिक पाठ को भूल जाना।
प्रश्न: उपवास करने वाले व्यक्ति को उपवास के दिन क्या क्या करना चाहिये?
उत्तर:
· पांच पापो का, अलंकार धारण करना, खेती आदि का आरम्भ करना, चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थो का लेप करना, पुष्पमालायें धारण करना या पुष्पों को सूंघना, स्नान करना, अंजन-काजल, सुरमा आदि लगाना तथा नाक से नास आदि सूंघना इन सबका त्याग करना चाहिये।
· कानो से धर्मरूपी अमृत स्वयं पीवे अथवा दूसरों को पिलावे अथवा आलस्य रहित होता हुआ ज्ञान और ध्यान में तत्पर होवे। १२ भावनायें और ४ प्रकार के धर्मध्यान में लीन रहे।
प्रश्न: उपवास, प्रोषध और प्रोषधोपवास में क्या अन्तर है?
उत्तर:
· चार प्रकार के आहार का त्याग करना उपवास है।
· एक बार भोजन करना प्रोषध है।
· धारणा के दिन एकाशन और पर्व के दिन उपवास करना पुनः पारणा के दिन एकाशन करना।
प्रश्न: प्रोषधोपवास के अतिचार बतलाइएैं?
उत्तर:
· नेत्रो से देखे बिना तथा कोमल वस्त्र आदि उपकरण से शुद्ध किये बिना पूजा व स्वाध्याय के उपकरण ग्रहण करना।
· देखे सोधे बिना ही पूजा तथा स्वाध्याय के उपकरण रख देना व शरीर के संग हाथ पैरो को पसारना।
· देखे सोधे बिना ही सोने के बिस्तर आदि बिछा देना।
· उपवास में अनादर रखना, उत्साह रहित होना।
· उपवास के दिन क्रिया, पाठ आदि करना भूल जाना।
प्रश्न: दान किसे कहते है?
उत्तर: सात गुणों से सहित और कौलिक, आचारिक तथा शारीरिक शुद्धि से सहित दाता के द्वारा गृह-सम्बन्धी कार्य तथा खेती आदि के आरम्भ से रहित सम्यग्दर्शनादि गुणों से सहित मुनियों का नवधाभक्तिपूर्वक जो आहारादि के द्वारा गौरव किया जाता है वह दान माना जाता है।
· श्रावक के सात गुण: श्रद्धा, सन्तोष, भक्ति, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा, सत्य
· नवधाभक्तिपूर्वक दान: पङगाहन, उच्चस्थान, पादप्रक्षालन, पूजन, प्रणाम, मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि, आहार शुद्धि।
प्रश्न: दान का फ़ल बतलाइये।
उत्तर:
· जिस प्रकार से जल खून को धो देता है, उसी प्रकार मुनियों के लिए दिया दान दृहस्थी सम्बन्धी कार्यों से उपार्जित कर्मो को नष्ट कर देता है।
· मुनियों को नमस्कार करने से उच्च गोत्र का बन्धन होता है, आहारादि देने से भोग का, पङगाहने से पूजा, भक्ति (= गुणानुराग) से सुन्दर रूप, तथा स्तुति(जैसे- ’आप ज्ञान के सागर है’) करने से कीर्ति की प्राप्ति होती है।
· जिस प्रकार से वटवृक्ष का बीज बहुत छाया के साथ बहुत सारे फ़ल देता है, उसी प्रकार उचित समय में योग्य पात्र को दिया हुआ थोङा भी दान बहुत फ़ल देता है।
प्रश्न: वैयावृत्य के चार भेद बतलाइये।
उत्तर: आहार, औषध, उपकरण, आवास
प्रश्न: वैयावृत्य के चार भेद में किसकी कहानियां प्रसिद्ध हैं।
उत्तर:
· आहार - श्रीषेण राजा
· औषध - वृषभसेना
· उपकरण - कौण्डेश
· आवास - सूकर
प्रश्न: वैयावृत्य में पूजा के बारे में क्या बतलाया गया है।
उत्तर: श्रावक रोज समस्त दुःखो को हरने वाली अरहन्त भगवान के चरणो की पूजा आदरपूर्वक करे। पूजा के फ़ल में मेंढ़क की कथा प्रसिद्ध है।
प्रश्न: वैयावृत्य के अतिचार बतलाइएैं?
उत्तर:
· हरे कमल पत्र आदि से आहार को ढ़कना।
· हरे कमल पत्र आदि पर आहार को रखना।
· देते हुए भी आदर भाव न होना।
· अस्मरण: आहारदान इस समय ऐसे पात्र के लिये देना चाहिये अथवा आहार में यह वस्तु दी जाती है कि नहीं दी जाती है, इस प्रकार की स्मृति का अभाव होना।
· मात्सर्य: अन्य दाता के दान तथा गुणों को सहन नहीं करना।
प्रश्न: अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार समझाइये?
उत्तर:
अतिक्रम: मनसिक शुद्धि का नष्ट होना अतिक्रम है
व्यतिक्रम: शीलरूप बाढ का उल्लंघन करना व्यतिक्रम है
अतिचार: विषयो मे कदाचित प्रवृत्ति करना अतिचार है
अनाचार: विषयो मे अत्यनत आसक्त हो जाना अनाचार है
व्रतो की रक्षा के लिये भावनाओं का वर्णन किया है
प्रश्न: अहिंसादि अणुव्रतो मे किस किस की कथायें प्रसिद्ध हैं?
उत्तर: यमपाल चण्डाल, घनदेव, वारिषेण राजकुमार, नीली, जयकुमार
प्रश्न: हिंसादि पापो मे किस किस की कथायें प्रसिद्ध हैं?
उत्तर: धनश्री, सत्यघोष तापस कोतवाल, श्मश्रुनवनीत
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सल्लेखना
प्रश्न: सल्लेखना किसे कहते हैं?
उत्तर: ऐसा उपसर्ग, दुष्काल, बुढ़ापा और रोग हो जिसका प्रतिकार ना दिखता हो, तो धर्म के लिये शरीर को छोङने को सल्लेखना कहते हैं।
प्रश्न: सल्लेखना लेते हुये सबसे पहले क्या करना चहिये?
उत्तर:
· प्रीति, बैर, ममत्वभाव और परिग्रह को छोङकर स्वच्छ ह्रदय होता हुआ मधुर वचनों से अपने कुटुम्बी जन तथा परिवार के लोगो को क्षमा कराकर स्वयं क्षमा करे। यदि कोई अपराध किया हो, कराया हो, अनुमोदना की हो, उसकी आलोचना वीतरागी गुरू के सामने करें। मरने तक महाव्रतो को धारण करें।
· शोक, भय, खेद, स्नेह, द्वेष और अप्रीति को छोङकर तथा धैर्य और उत्साह को प्रकटकर स्त्ररूप अमृत के द्वारा चित्त को प्रसन्न करना चाहिए।
· पहले आहार छोङकर दूध, फ़िर दूध छोङकर छाछ, फ़िर गर्म जल ले। फ़िर शक्ति का अतिक्रमण ना करते हुए उपवास करें। पूर्ण तत्परता से पंच नमस्कार मंत्र का स्मरण करते हुए शरीर को त्यागे।
प्रश्न: ज्ञानी मृत्यु पास आने पर क्यों उत्साहित होता है?
उत्तर: जिस फ़ल को अनेक व्रतो को पालन करने से पाते हैं, वह मृत्यु के अवसर में थोङे समय में शुभध्यान पूर्वक सूख से साधन करने से प्राप्त हो जाता है। इसलिये उत्तम फ़ल प्राप्त करने का अवसर जान ज्ञाने उत्साहित होता है। क्योंकि मरण से शरीर छूटकर नया मिल जाता है।
प्रश्न: ज्ञानी रोग की वेदना में धैर्य कैसे रखता है?
उत्तर: मरण समय होने वाला दुःख मेरा स्वभाव नहीं, और स्वभाव से उसे मैं भोक्ता नहीं। रोग और दुख मेरे अन्दर नहीं। इस प्रकार अपने सहजानन्द स्वरूप में रहकर ज्ञानी धर्य रखता है।
मेरे पुराने किया कार्यो का ही फ़ल मिल रहा है, इसलिये न्यायपूर्ण है। तो फ़िर वेदना के प्रति गन्दे भाव क्यॊं रखूं।
प्रश्न: ज्ञानी कुटूम्बियों से राग कैसे छोङता है?
उत्तर: माता, पिता, स्त्री ने जो सुख दिया वो वास्तव मेरे कर्मो से ही मिला, क्योंकि कोई किसी को सुख दुख देता नहीं। दुनिया में सारे सम्बन्ध सुख दुख के लेन देन के होते हैं। और जब कोई सुख देख देता नहीं तो किसी से सम्बन्ध कैसा।
प्रश्न: ज्ञानी शोक, भय कैसे छोङता है?
उत्तर: अपने को ज्ञान मानता है अविनाशी मानता है और शरीरे के छुटने पर शोक, भय नहीं करता।
प्रश्न: ज्ञानी शरीर के राग से कैसे मुक्त होता है?
उत्तर:
१. अशुचि भावना: दुर्गन्ध हड्डी, मांस, मज्जा, चमङा से मिलकर बना है।
२. शरीर को अपना ना मानके।
प्रश्न: काय सल्लेखना और कषाय सल्लेखना में क्या अन्तर है?
उत्तर: तपश्चरण से काया को कृश करना काय सल्लेखना है, वैसे ही राग-द्वेष-मोहादि कषायो को भी साथ-साथ ही कृश करना कषाय सल्लेखना है।
प्रश्न: मृत्य महोत्सव पाठ का सारांश बतलाइये।
उत्तर:
· हे प्रभु मुझे समाधि प्रदान करें
· शरीर मेरा नहीं। मैं ज्ञान शरीरी हूं।
· जब शरीर मेरा नहीं, तो शरीर के बिछुङने पर क्यों भय करूं?
· जिस मृत्यु के बाद स्वर्गलोक का सुख भोगा जाता है, उससे सत्पुरूषो को भय कैसा?
· जब से यह शरीर मिला तब से भूख, प्यास, रोग अनेक परेशानियां मिली। अब इनसे मृत्यु ही मुझे छुङायेगी।
· आत्मज्ञानी पुरूष मरण से इस देह को छोङकर सुख की सम्पदा को प्राप्त करते हैं।
· जो जीव मृत्यु के प्राप्त होने पर भी अपना कल्याण नहीं कर सका, वो संसार कीचङ में डूबा हुआ फ़िर बाद में क्या करेगा?
· जिस मरण से शरीर छूटकर नया मिल जाता है, वह ज्ञानियों के लिये हर्ष का कारण है।
· मैं जानने वाला हूं। मैं सुख दुख को मात्र जानता ही हूं। परलोक को गमन करता हूं तो म्रुत्यु से भय कैसा?
· जिनका मन संसार में आसक्त है, जो अपनी आत्मा को नहीं जानते, उन्हे मृत्यु से भय लगता है; किन्तु जो संसार से वैरागी हैं उनहे मरण आनन्द ही देता है।
· जिस समय यह आत्मा आयु पूरी कर परलोक जाता है, उस समय इसे पंचभूत (पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु, आकाश) भी नहीं रोक सकता।
· मरण के समय जो पुराने कर्मो के उदय से रोग आदि से दुख पैदा होता है, वह सत्पुरूषो को देह से ममता छुङाने के लिये तथा निर्वाण का सुख प्राप्त कराने के लिये होता है।
· मरण समस्त जीवो को दुख देती है, मगर सम्यक्ज्ञानी जीवो को अमृत देती है।
· सत्पुरूष जिस फ़ल को अनेक व्रतो को पालन करने से पाते हैं, वह मृत्यु के अवसर में थोङे समय में शुभध्यान पूर्वक सूख से साधन करने से प्राप्त हो जाता है।
· जो मरण करते हुये दुखी नहीं होता, वह नरक/तीर्यंच नहीं होता। जो धर्मध्यान सहित अंशन करते हुये मरता है, वह स्वर्ग में इन्द्र होता है।
· तप करने का, व्रत करने का, जिन्वाणी पढ्ने का फ़ल तो आत्मा की सावधानी के साथ मरण करना ही है।
· लोग कहते हैं जिस चीज जो बहुत सेवन कर लिया उससे रूचि हट जाती है, तो फ़िर अब शरीर का बहुत सेवन कर लिया अब इसके नाश पर क्यों डर रहे हो।
· इस प्रकार जो ४ आराधना के साथ मरण करता है वह पक्का स्वर्ग में जाता है। फ़िर वहां सुख भोगकर मनुष्य बनता है। वहां खूब भोग भोगकर, मुनि बनकर सब लोगो को आनन्द देता हुआ शरीर छोङकर निर्वाण को प्राप्त करता है।
प्रश्न: सल्लेखना में आहार छोङने का क्रम बतलाइये।
उत्तर: पहले आहार छोङकर दूध, फ़िर दूध छोङकर छाछ, फ़िर गर्म जल और फ़िर शक्ति अनुसार १-२ उपवास करते हुये पंच नमस्कार मंत्र का स्मरण करते हुए शरीर को त्यागे।
प्रश्न: सल्लेखना के अतिचार बतलाइये।
उत्तर:
१. जीवितांशा: ’मैं कुछ समय के लिए और जीवित रहूं तो अच्छा है’
२. मरणाशंसा: भूख प्यास की वेदना होने पर ऐसी इच्छा होना कि ’मैं जल्दी मर जाऊं; तो अच्छा है।
३. भय: दो प्रकार का भय है:
३.१ इहलोकभय: ’मैने सल्लेखना धारण तो की है किन्तु अधिक समय तक मुझे भूख-प्यास की वेदना सहन नहीं करनी पङे।’ इस प्रकार का भय होना।
३.२ परलोकभय: ’इस प्रकार के दुर्धर अनुष्ठान का परलोक में विशिष्ट फ़ल प्राप्त होगा कि नहीं’। ऐसा भय उत्पन्न होना।
४. मित्रस्मृति: बाल्यादि अवस्था में मित्रो के साथ जो क्रीङा की थी उन मित्रो का स्मरण करना।
५. निदान: आगामी भोगो की आकांक्षा करना।
प्रश्न: ज्ञानी सुख से प्रति तो कृतज्ञ और सन्तुष्ट रहता ही है, क्या दुख के प्रति भी कृतज्ञ (सन्तुष्ट) रहता है।
उत्तर: हां। ज्ञानी कहता है - ’हे दुःख। अच्छा हुआ तुम आ गये। अब इस अवसर में थोङे से ही शुभ(और शुद्ध) ध्यान से मेरे बहुत कर्मो की निर्जरा होने वाली है।’ ऐसा विचार कर ज्ञानी दुख के प्रति कृतज्ञ, सन्तुष्ट रहता है। यही कारण है कि मुनी महाराज जानबूझकर नाना प्रकार के तपो (अनशन, कायक्लेश) को आमन्त्रित करते हैं।
प्रश्न: श्रावक प्रतिमा किसे कहते हैं?
उत्तर: श्रावक के जो पद-स्थान हैं वे श्रावक प्रतिमा कहलाती हैं।
प्रश्न: अविरत सम्यग्दृष्टि, पाक्षिक, नैष्ठिक, साधक के अर्थ बताइये?
उत्तर:
· अविरत सम्यग्दृष्टि: जो निरतिचार सम्यग्दर्शन को पालता है परन्तु व्रतो से सर्वथा रहित है। ४ गुणस्थान
· पाक्षिक श्रावक: जो सम्यग्दर्शन के साथ आठ मूलगुणों को अतिचार सहित धारण करता है तथा सात व्यसनों का सातिचार त्याग करता है। ४ गुणस्थान। आठ मूलगुण = मद्य, मांस, मधु त्याग + ५ अणुव्रत
· नैष्ठिक श्रावक: जो ११ प्रतिमाओं का निरतिचार पालन करता है। ५ गुणस्थान
· साधक श्रावक: जो अन्त समय में सल्लेखना धारण कर रहा है।
1. दर्शन प्रतिमा
|
* पच्चीस दोषो से रहित
८ मद [कुल, जाति, रूप, ज्ञान, धन, बल, तप, प्रभुता(आज्ञा, मान्यता)]
३ मूढता [देव, गुरू, लोक]
६ अनायतन [कुगुरू, कुदेव, कुधर्म, कुगुरू सेवक, कुदेव सेवक, कुधर्म सेवक]
८ दोष [शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढ़दृष्टि, अनुपगूहन, अस्थितिकरण, अवात्सल्य, अप्रभावना]
* संसार, शरीरे, इन्द्रिय भोग से विरक्त हो
* पंच परमेष्ठी ही जिसको शरणभूत हों
* जीवादि तत्वो का श्रद्धान करने वाला हो।
* आठ मूलगुणो को जो धारण करता है।
|
* तीन शल्यों का अभाव नहीं
है।
* अणुव्रतो में कदाचित अतिचार लगते हैं
|
2. व्रती
|
* पांच अणुव्रत
आहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत, अपरिग्रहाणुव्रत
* तीन गुणव्रत
दिगव्रत, अनर्थदंडव्रत, भोगोपभोगपरिमाणव्रत
* चार शिक्षाव्रत
देशावकाशिक(देशव्रत), सामायिक, प्रोषोधोपवास, वैयावृत्य(अतिथिसंविभाग)
उपर्युक्त व्रतो को माया-मिथ्या-निदान शल्यो से रहित होकर पालन करता हो।
|
* तीन शल्य छूट जाते हैं।
* अणुव्रतो का निरतिचार पालन होता है।
* तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत में कदाचित
अतिचार लगते हैं।
|
3. सामायिक
|
३ समय सामायिक करता है (प्रातःकाल, मध्यान्ह काल, सांयकाल)
| |
4. प्रौषध
|
अष्टमी, चतुर्दशी पर प्रौषध करता है
|
शक्ति अनुसार करने को कहा गया है।
वृद्धावस्था या बिमारी आदि के कारण यदि
उपवास की शक्ति क्षीण हो गयी है
तो अनुपवास या एकासन भी कर सकता है।
|
5. सचित्त त्याग
|
दया की मूर्ति होता हुआ मूल, फ़ल, पत्र, डाली आदि बिना अग्नि से पकाये हों, कच्चे हों उन्हे भक्षण नहीं करता।
| |
6. रात्रि भुक्ति विरत
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दयालु होता हुआ रात में कुछ नहीं खाता पीता
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पहली प्रतिमा में रात्रि भोजन त्याग कृत अपेक्षा होता है।
इस प्रतिमा में ९ कोटि (मन, वचन काय और
कृत, कारित अनुमोदना) से त्याग होता है।
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7. ब्रहमचारी
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शरीर के प्रति अशुचि भाव रखता हुआ अपनी स्त्री के साथ शयन त्याग देता है
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राग उत्पन्न करने वाले वस्त्राभरण नहीं पहनता,
शृंगारकथा, हास्यकथा, काव्य नाटकादि का
पठन श्रवण यानि रागवर्धक सभी वस्तुओं का
त्याग कर देता है।
|
8. आरंभ त्याग
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प्राणघात के कारण नौकरी, कृषि, असि, लेखन आदि छोङ देता है
|
* अभिषेक, दान, पूजन आदि का आरम्भ कर सकता है।
* जिस वाणिज्य आदि में प्राणिहिंसा नहीं होती उसमें बाधा नहीं।
* आरम्भ का त्याग कृत, कारित से होता है, अनुमोदना से नहीं।
पुत्रों आदि को आरम्भ की अनुमति दे सकता है।
* कपङे धोना, जलादि भरना आदि कार्य
स्वयं अपने हाथ से कर सकता है।
* धनोपार्जन के लिये पापारम्भ का त्याग करे और स्त्री
पुत्रादि था धनादि समस्त परिग्रह का विभाग करके
अल्प धन स्वयं रखे। उसे अपने शरीर के साधन,
भोजन, औषधि आदिअ में लगावे, दान पूजा करे।
स्वयं भोजन बनाकर खा भी सकते हैं।
|
9. परिग्रह त्याग
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दस बाह्य वस्तुओं में ममता का त्याग करता है, आत्मा में लीन रहके सन्तोषी होता है।
|
* दस प्रकार का परिग्रह: क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद(दासादि),
चतुष्पद(गायादि), शयन, यान (पालकी), कृप्य(रेशमी-सूती
कोशादि के वस्त्र), भाण्ड (चन्दन, कांसा आदि के बर्तन)
* वस्त्र, मकान आदि परिग्रह को छोङकर शेष सब परिग्रह छोङ देता है।
* ममत्वभाव होने से आरम्भ आदि में पुत्र को अनुमति देता है।
|
10. अनुमति त्याग
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आरंभ की कार्यो में अनुमोदना/अनुमति नहीं करता/देता
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* आरम्भ-परिग्रह और विवाह आदि ऐहिक कार्यों में जिसकी अनुमति नहीं है। स्वजनो और परजनो के पूछने पर भी गृह सम्बन्धी कार्यो में अनुमति नहीं देता।
* धार्मिक कार्यो में अनुमति दे सकता है।
* घर से निकलने की इच्छा हो जाने पर गुरूजन, बन्धु-बान्धव और पुत्रादि से यथायोग्य पूछे।
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11. उद्दिष्टत्याग
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घर छोङकर मुनि संघ में रहता है। भिक्षा द्वारा भोजन ग्रहण करता है। एक खंड वस्त्र को घारण करता है।
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क्षुल्ल्क:
* खण्ड वस्त्र पहनते हैं: जिससे मस्तक ढ़के तो पैर न ढ़के, पैर ढ़के तो मस्तक न ढ़के।
* दाढ़ी, मूंछ और सिर के बालो को कैंची से कटावे।
* पिच्छी से उपकरण को मार्जन करके उठावे, रखे
* बैठकर पात्र में भोजन करे। हाथ में पात्र लिये हुए श्रावक के घर जाकर उसके आंगन में खङे होकर ’धर्मलाभ’ कहकर भिक्षा की प्रार्थना करे। इस प्रकार घर-घर भिक्षा मांगना ना रूचे तो एक घर में ही मुनियों के पश्चात दाता के घर जाकर भोजन करे।
* अन्तराय आने पर भोजन पान का त्याग करे।
ऐलक:
* लंगोट रखते हैं
* दाढ़ी मूछ के बालो को हाथ से उखाङते हैं।
एषणा के दोषो से रहित करपात्र में ही भोजन करते हैं।
* ये सभी परस्पर ’इच्छामि’ उच्चारण द्वारा विनय व्यवहार करते हैं।
* दोनो ही क्षुल्लक ऐल्लक रेल, मोटर आदि वाहन में बैठकर यात्रा नहीं करते, पैदल विहार करते हैं।
क्षुल्लिका:
* सोलह हाथ की सफ़ेद साङी और चद्दर रखती है।
* क्षुल्लिका की सारी क्रियाएं क्षुल्लक के समान है।
आर्यिका:
* सोलह हाथ की सफ़ेद साङी रखती है।
* उपचार से महाव्रती कहा है।
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I wrote or extracted above explanations based on my knowledge from earlier Texts, and knowledgeable people correct me for any mistakes. Micchami Dukkadam, Shrish shrishjain@gmail.com
2 comments:
Great Work Shrish...I appreciate your Knowledge in Jain Literature. I hope to get good knowledge like you soon.
Thanks for sharing :)
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