- Distinguishing that I am the observer and the observed is different.
- Being aware of what is one is getting aware of.. and distinguishing between observer and observed.
References from scriptures:
नोकर्म मेरा नहीं है, द्रव्यकर्म मेरा नहीं है, और भावकर्म भी मेरा नहीं है, इस तरह इन पदार्थों से आत्मतत्त्व को पृथक्
सिद्ध कर ज्ञेय-ज्ञायक भाव और भाव्य- भावक भावकी अपेक्षा भी आत्मा को ज्ञेय तथा
भाव्य से पृथक् सिद्ध किया है ।
ज्ञान ज्ञेय को जानता है
फिर भी उन दोनों में पृथक् भाव है। यह ज्ञान की स्वच्छता का ही फल है । देखिए, कितना सुंदर वर्णन है---
ण पविठ्टो णाणी णेयेसु रूवामिव
चक्खू ।
जाणदि पस्सदि णियदं अक्खातीदो जगमसेसं ।।29।।
जिस प्रकार चक्षु रूप को जानता है परंतु रूप
में प्रविष्ट नहीं होता और न रूप ही चक्षु में प्रविष्ट होता है उसी प्रकार
इंद्रियातीत ज्ञान का धारक आत्मा समस्त जगत् को जानता है फिर भी उसमें प्रविष्ट
नहीं होता है । ज्ञान और ज्ञेय के प्रदेश एक-दूसरे में प्रविष्ट नहीं होते मात्र
ज्ञान-ज्ञेय की अपेक्षा ही इनमें प्रविष्ट का व्यवहार होता है ।
आगे ज्ञान न तो ज्ञेय में जाता है और न ज्ञेय ज्ञानमें जाता है ऐसा प्ररूपण करते है--
णाणी णाणसहावो, अत्था१ णेयापगा हि णाणिस्स।
रूवाणि व चक्खूणं, णेवण्णोण्ण्ोसु वट्टंति।।२८।।
निश्चय से आत्मा ज्ञानस्वभाववाला है और पदार्थ उस ज्ञानी—आत्मा के ज्ञेयस्वरूप हैं। जिस प्रकार रूपी पदार्थ चक्षुओं में प्रविष्ट नहीं होते और चक्षु रूपी पदार्थों में प्रविष्ट नहीं होते उसी प्रकार ज्ञेय ज्ञानी आत्मा में प्रविष्ट नहीं है और ज्ञानी ज्ञेय पदार्थों में प्रविष्ट नहीं है। पृथक् रहकर ही इन दोनों में ज्ञेय ज्ञायक संबंध है।।
आगे यद्यपि निश्चय से ज्ञानी–ज्ञेयों में – पदार्थों में प्रविष्ट नहीं होता है तो व्यवहार से प्रतिष्ट के समान जान पड़ता है ऐसा कथन करते हैं।
ण पविट्ठो णाविट्ठो, णाणी णेयेसु रूवमिव चक्खू।
जाणदि पस्सदि णियदं, अक्खातीदो जगमसेसं।।२९।।
इंद्रियातीत अर्थात् अतींद्रिय ज्ञानसहित आत्मा जानने योग्य पदार्थों में प्रविष्ट नहीं होता और प्रविष्ट नहीं हेाता सर्वथा ऐसा भी नहीं है, व्यवहार की अपेक्षा प्रविष्ट होता भी है। वह रूपी पदार्थ को नेत्र की तरह समस्त संसार को निश्चित रूप से जानता है।
जिस प्रकार चक्षु रूपी पदार्थ में प्रविष्ट नहीं होता फिर भी वह उसे देखता है इसी प्रकार आत्मा जानने योग्य पदार्थ में प्रविष्ट नहीं होता फिर भी वह उसे जानता है। परंतु दृश्य-दर्शक संबंध होने की अपेक्षा व्यवहार से जिस प्रकार चक्षु रूपी पदार्थ में प्रविष्ट हुआ कहलाता है उसी प्रकार ज्ञेय-ज्ञायक संबंध होने की अपेक्षा व्यवहार से आत्मा प्रविष्ट हुआ कहलाता है।।२९।।
पण्णाए घित्तव्वो, जो
चेदा सो
अहं तु
णिच्छयदो।
अवसेसा
जे भावा,
ते मज्झ परेत्ति णायव्वा।।२९७।।
जो
चेतनस्वरूप
आत्मा
है
वह
निश्चय
से
मैं
हूँ
इस
प्रकार
प्रज्ञा
के
द्वारा
ग्रहण
करना
चाहिए
और
बाकी
जो
भाव
हैं
वे
मुझसे
परे
हैं
ऐसा
जानना
चाहिए।।२९७।।
जीवणिबद्धा एए, अधुव अणिच्चा तहा असरणा य ।
दुक्खा दुक्खफला त्ति य, णादूण णिवत्तए3 तेहिं ।।74।।
जीव के साथ बँधे हुए ये आस्रव अध्रव हैं, अनित्य हैं, शरणरहित हैं, दु:ख हैं और दु:ख के फलस्वरूप हैं । ऐसा जानकर ज्ञानी जीव उनसे निवृत्ति करता है ।।74।।
णाहं णारयभावो, तिरियत्थो मणुवदेवपज्जाओ।
कत्ता ण हि कारइदा, अणुमंता णेव कत्तीणं।।७७।।
णाहं मग्गणठाणो, णाहं गुणठाण जीवठाणो ण।
कत्ता ण हि कारइदा, अणुमंता णेव कत्तीणं।।७८।।
णाहं बालो वुड्ढो, ण चेव तरुणो ण कारणं तेसिं।
कत्ता ण हि कारइदा, अणुमंता णेव कत्तीणं।।७९।।
णाहं रागो दोसो, ण चेव मोहो ण कारणं तेसिं।
कत्ता ण हि कारइदा, अणुमंता णेव कत्तीणं।।८०।।
णाहं कोहो माणो, ण चेव माया ण होमि लोहोहं।
कत्ता ण हि कारइदा, अणुमंता णेव कत्तीणं।।८१।।
मैं नारक पर्याय, तिर्यंच पर्याय, मनुष्य पर्याय अथवा देव पर्याय नहीं हूँ। निश्चय से मैं उनका न कर्ता हूँ, न करानेवाला हूँ और न करनवालों की अनुमोदना करनेवाला हूँ।।७७।।
मैं मार्गणास्थान नहीं हूँ, गुणस्थान नहीं हूँ और न जीवस्थान हूँ। निश्चय से मैं उनका न करने वाला हूँ, न करानेवाला हूँ और न करनेवालों की अनुमोदना करने वाला हूँ।।७८।।
मैं बालक नहीं हूँ, वृद्ध नहीं हूँ तरुण नहीं हूँ और न उनका कारण हूँ। निश्चय से मैं उनका न करनेवाला हूँ, न करानेवाला हूँ और न करनेवालों की अनुमोदना करनेवाला हूँ।।७९।।
मैं राग नहीं हूँ, द्वेष नहीं हूँ, मोह नहीं हूँ और न उनका कारण हूँ। निश्चय से मैं उनका न करनेवाला हूँ, न करानेवाला हूँ और करनंवालों की अनुमोदना करनेवाला नहीं हूँ।।८०।।
मैं क्रोध नहीं हूँ, मान नहीं हूँ, माया नहीं हूँ और लोभ नहीं हूँ। मैं उनका करनेवाला नहीं हूँ, करानेवाला नहीं हूँ और करनेवालों की अनुमोदना करनेवाला नहीं हूँ।।८१।।
१आरूहवि अंतरप्पा, बहिरप्पा छंडिऊण तिविहेण।
झाइज्जइ परमप्पा, उवइट्ठं जिणवरिंदेहिं।।७।।
मन वचन काय इन तीन योगों से बहिरात्मा को छोड़कर तथा अंतरात्मा पर आरूढ़ होकर अर्थात् भेदज्ञान के द्वारा अंतरात्मा का अवलंबन लेकर परमात्मा ध्यान किया जाता है, ऐसा जिनेंद्रदेव ने कहा है।।७।।
णियदेहसरिस्सं पिच्छिऊण परविग्गहं पयत्तेण।
अच्चेयणं पि गहियं, झाइज्जइ २परमभागेण।।९।।
ज्ञानी मनुष्य निज शरीर के समान पर शरीर को देखकर भेदज्ञानपूर्वक विचार करता है कि देखो, इसने अचेतन शरीर को भी प्रयत्नपूर्वक ग्रहण कर रक्खा है।।९।।
भेदविज्ञानत: सिद्धा: सिद्धा ये किल केचन
।
अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ।।131।।
आजतक जितने सिद्ध
हुए हैं वे सब भेदविज्ञान से ही सिद्ध हुए हैं और जितने संसार में बद्ध हैं वे
भेदविज्ञान के अभाव से ही बद्ध हैं ।
उवओए उवओगो, कोहादिसु णत्थि कोवि उवआगो ।
कोहे कोहो चेव हि, उवओगे णत्थि खलु कोहो ।।181।।
अट्ठवियप्पे कम्मे, णोकम्मे चावि णत्थि उवओगो ।
उवओगम्हि य कम्मं, णोकम्मं चावि णो अत्थि ।।182।।
एयं तु अविवरीदं, णाणं जइआ उ होदि जीवस्स ।
तइया ण किंचि कुव्वदि, भावं उवओगसुद्धप्पा ।।183।।
उपयोग में उपयोग है, क्रोधादि में कोई उपयोग नहीं है । क्रोध में क्रोध ही है, निश्चय से उपयोग में क्रोध नहीं है । आठ प्रकार के कर्म में और नोकर्म में उपयोग नहीं है तथा उपयोग में कर्म और नोकर्म नहीं है । जिस समय जीव के यह अविपरीत ज्ञान होता है उस समय वह उपयोग से शुद्धात्मा होता हुआ उपयोग के बिना अन्य कुछ भी भाव नहीं करता है ।181-183।।