हे दादी, तू चली गयी।
जिस परिवार को तूने पाला-पौसा, सींचा,
उसे छोङ के तू चली गयी।
जिस शरीर की तूनी जीवन भर सेवा की
जिसका साथ तेरे को हमेशा रहा
उसे भी छोङ के तू चली गयी
जिस घर में तू हमेशा रही
जिस घर के कण कण से तेरी पहचान थी
उसे तू छोङ के चली गयी।
हे परिवार वालो। जिस मां ने तुझे अपने खून से सींचा
क्या तेरे में इतनी नमक-हलाली नहीं थी, कि उसे तु जाने से रोक लेता?
हे शरीर। क्यों मृत सा पङा है तू
क्या तेरे परमाणुओं पर दादी का एहसान ना था, जिसनें तुझे पुष्ट किया
क्यों मौत के समय तू मूक होकर सब देखता रहा?
तू क्यों ना उसको जाने से रोक सका।
हे घर, हे समाज! क्या तुम सब मूक दृष्टा हो।
अगर हो, तो क्यों कहते हो कि ’कोई मेरा चला गया’
और दादी क्यों तुम सबको अपना कहती थी।
और क्या ये ’अपनापन’ सिर्फ़ ढ़ोंग था। वास्तव में क्या कोई किसी का ही ना था?